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'शख्सियत'

हरिवंश राय बच्चन: एक कवि जिसने 'दुनिया' को बताया कि 'दुनिया' के अंदर भी एक 'दुनिया' है

30-Nov-2018

By:  sachin



हरिवंश राय बच्चन यानी हरिवंश राय श्रीवास्तव, यानी हिंदी साहित्य के लोकप्रिय नामों में से एक नाम, यानी मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन के पिता, यानी हिंदी की सबसे अधिक लोकप्रिय रचना 'मधुशाला' के रचयिता. ऐसे न जाने कितने 'यानी' हरिवंश राय बच्चन के नाम के साथ लगते जाएंगे लेकिन उनकी शख्सियत के विशेषण कम नहीं होंगे. सीधे शब्दों में कहें तो हरिवंश राय बच्चन हिंदी के सबसे लोकप्रिय कवियों में एक हैं. आज उनका जन्मदिन है. कुछ लोग उनके बारे में केवल इतना ही जानते हैं कि वह अमिताभ बच्चन के पिता थे लेकिन उनकी शख्सियत कभी किसी परिचय के लिए निर्भर नहीं रही. उनकी कविताएं ही उनका परिचय थीं, वह खुद अपना वजूद थे.उनकी खासियत यह थी कि वह आंसुओं की आहट को अपनी आंखों से जाहिर नहीं होने देते थे लेकिन उनके शब्द हर लम्हे के गवाह थे. उन्होंने लिखा था.. दुख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सिर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे सा छिपकर सोया था! मैं कल रात नहीं रोया था! प्यार भरे उपवन में घूमा, फल खाए, फूलों को चूमा, कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था! मैं कल रात नहीं रोया था! आंसू के दाने बरसाकर किन आंखो ने तेरे उर पर ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था? मैं कल रात नहीं रोया था! 27 नवम्बर 1907 को हरिवंश राय का जन्म इलाहाबाद के पास बसे प्रतापगढ़ के एक गांव बाबूपट्टी में हुआ था. उनका पूरा नाम हरिवंश राय श्रीवास्तव था लेकिन बचपन में गांव वाले उन्हें प्यार से 'बच्चन' कहकर पुकारा करते थे. गांव में 'बच्चन' का मतलब 'बच्चा' होता था लेकिन बाद में हरिवंश 'बच्चन' के नाम से ही पूरी दुनिया में मशहूर हुए. पढ़ाई की शुरुआत कायस्थ पाठशाला में करने वाले हरिवंश राय ने प्रयाग यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में एमए किया और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से इंग्लिश के प्रसिद्ध कवि डब्लू. बी. यीट्स की कविताओं पर शोध करके पीएचडी पूरी की. 1926 में 19 साल के हरिवंश राय जब जिंदगी के मायने खोज रहे थे तभी उनकी शादी 14 साल की श्यामा बच्चन से कर दी गई. लेकिन दुख का पहाड़ बच्चन पर पहली बार तब टूटा जब 1936 में श्यामा बच्चन की टीबी की बीमारी से मौत हो गई. जिंदगी में अचानक आए इस दुख के झोंके से हरिवंश खुद को उबारने की कोशिश करने लगे. 1939 में उन्होंने 'एकांत संगीत' के नाम से एक रचना प्रकाशित की जिसमें उनका दुख और अकेलापन साफ दिखाई देता है. उन्होंने लिखा था.. तट पर है तरुवर एकाकी, नौका है, सागर में, अंतरिक्ष में खग एकाकी, तारा है, अंबर में भू पर वन, वारिधि पर बेड़े, नभ में उडु खग मेला, नर नारी से भरे जगत में कवि का हृदय अकेला! श्यामा बच्चन के गुजर जाने के 5 साल बाद 1941 में हरिवंश ने 'तेजी सुरी' से दूसरी शादी की. तेजी रंगमंच और गायकी की दुनिया से ताल्लुक रखती थीं. बाद में हरिवंश और तेजी के दो बेटे हुए जिन्हें दुनिया अमिताभ बच्चन और अजिताभ बच्चन के नाम से जानती है. बच्चन का सबसे पहला कविता संग्रह 'तेरा हार' 1929 में आया था लेकिन उन्हें पहचान लोकप्रिय कविता संग्रह 'मधुशाला' से मिली. यह कविता संग्रह 1935 में दुनिया से रूबरू हुआ. इस रचना ने अपने जमाने में कविता का शौक रखने वालों को अपना दीवाना बना दिया था. इसमें खास तौर पर वह लोग शामिल थे जो कविता के साथ-साथ शराब का भी शौक रखते थे. यह उस दौर का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला कविता संग्रह था लेकिन मीडिया रिपोर्ट में सामने आया था कि हरिवंश राय बच्चन के पिता प्रताप नारायण श्रीवास्तव को लगता था कि इस कविता संग्रह से देश के युवाओं पर गलत असर पड़ रहा है और वह शराब की ओर आकर्षित हो रहे हैं. वह हरिवंश की इस रचना पर नाराज भी हुए थे. हालांकि उस दौर में मधुशाला का कई जगह विरोध भी हुआ लेकिन बच्चन ने कहा था..अगर मैं छुपाना जानता तो यह दुनिया मुझे साधु समझती. इस बात का जिक्र प्रसिद्ध कवि गोपालदास नीरज ने एक चर्चा के दौरान किया था. उस दौर में मधुशाला पढ़ने वालों को लगता था कि इसके रचयिता शराब के बहुत शौकीन होंगे लेकिन हकीकत तो यह थी कि हरिवंश राय ने अपने जीवन में कभी शराब को हाथ नहीं लगाया. बच्चन जब मधुशाला का पाठ करते थे तो लोग दीवाने हो जाते थे और इस मधुशाला का नशा दुनियादारी की मधुशाला से ज्यादा होता था. इसकी सबसे चर्चित और शुरुआती लाइन यह है... मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला, पहले भोग लगा लूं तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला मधुशाला के बाद 1936 में बच्चन का कविता संग्रह मधुबाला और 1937 में मधुकलश आया. यह रचनाएं भी खूब प्रसिद्ध हुईं. निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर और सतरंगिनी उनके प्रसिद्ध रचना संग्रह हैं. उनकी रचना 'दो चट्टाने' को 1968 में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. उनकी कविता को इसी साल सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी नवाजा गया. साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए बच्चन को 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. हरिवंश राय बच्चन के बारे में एक दिलचस्प किस्सा अक्सर सुनने को मिलता है. इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा 'दशद्वार से सोपान' में भी किया है. बच्चन की आत्मकथा चार खंडों में प्रकाशित हुई थी. इनका नाम..'क्या भूलूं क्या याद करूं', 'नीड़ का निर्माण फिर', 'बसेरे से दूर' और 'दशद्वार से सोपान तक' है. बच्चन ने अपनी आत्मकथा में बताया कि उन्हें कलम का बहुत शौक था. वह लिखते हैं..'हर कलम का अपना व्यक्तित्व होता है. किसी कलम से कविता अच्छी लिखी जा सकती है, किसी कलम से गद्य. कोई कलम प्रेम पत्र लिखने के लिए अच्छा होता है, तो कोई अंग्रेज़ी लिखने के लिए. कोई नीली स्याही के उपयुक्त, कोई काली के, कोई ज़्यादा लिखने के लिए, तो कोई सिर्फ़ हस्ताक्षर करने के लिए.' बच्चन ने अपनी आत्मकथा का नाम 'दशद्वार से सोपान' ही क्यों रखा? इस बात का जवाब भी उन्होंने अपनी आत्मकथा में दिलचस्प तरीके से दिया है. उन्होंने लिखा.. 'दशद्वार और सोपान मेरे द्वारा दिए गए दो घरों के नाम हैं. इलाहाबाद में क्लाइव रोड पर मैं जिस किराए के मकान में रहता था उसे मैंने दशद्वार नाम दिया था. शायद आप यह भी जानना चाहें, क्यों? मकान बहुत रोशन और हवादार था. उसमें रहते हुए एक दिन अचानक मेरा ध्यान इस ओर गया कि उसके हर कमरे में दरवाजों, खिड़कियों रोशनदानों को मिलाकर दस-दस खुली जगह हैं जिनसे रोशनी और हवा आती है. क्या मकान बनवाने वाले ने जानबूझकर ऐसी व्यवस्था कराई है? बहुत संभव है. ब्रजमोहन व्यास साहित्यिक सुरुचि के संस्कारवान नागरिक हैं. क्या कमरे बनवाते हुए कबीर के इस दोहे को वे घर में भी मूर्तिवान देखना चाहते थे?' 'गुलमोहर पार्क के मकान को मैंने 'सोपान' नाम दिया है. यह तिमंज़िला है और तीनों मंज़िलों को एक लम्बी सीढ़ी जोड़ती है जो नीचे से ऊपर तक एक साथ देखी जा सकती है. घर में प्रवेश करने पर यह सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करती है. 'सोपान' शब्द मेरी साहित्यिक कृतियों से भी जुड़ा है. अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताओं का जो पहला संकलन मैंने प्रकाशित कराया था उसे मैंने 'सोपान' कहा था. दस बरस बाद जब उसमें इस अवधि की और उसी कोटि की कविताएं जोड़ी गईं तो मैंने उसका नाम 'अभिनव सोपान' रखा.' 'कल्पना यह थी कि जैसे इन कविताओं में मेरे कवि की उठान का क्रम सीढ़ी-दर-सीढ़ी संग्रह-दर-संग्रह प्रस्तुत किया जा रहा है, मकान को 'सोपान' नाम देकर मानो मैं यह कामना करता हूं कि उसमें बसनेवाला बच्चन-परिवार क्रम-क्रम से अभ्युदय-अभ्युत्थान की ओर अग्रसर हो. पीढ़ी-दर-पीढ़ी की साधना आवश्यक होगी.नामकरण की सटीकता तो भविष्य ही सिद्ध कर सकेगा.' 18 जनवरी 2003 को 95 साल की उम्र में हिंदी कविता के इस बेटे ने मुंबई में अपनी देह को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी कविताएं आज भी साहित्य प्रेमियों के दिल में धड़कती हैं.


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